Sunday, January 1, 2017

कर्मयोगी संगीतकार शंकर( जयकिशन )



हिंदी फ़िल्मी उद्योग मे मूर्खो की असीम संख्या है,चाहे फिर वो अभिनेता हो,अभिनेत्री हो,निर्माता,निर्देशक,गीतकार,संगीतकार ,फ़िल्मी लेखक हो आदि आदि।इसमे भी तुर्रा यह है कि फ़िल्मी समीक्षक अपने को सर्वोपरी मानते है?फिल्मो की जो समीक्षा भी यही करते है।इन समीक्षकों को यह गलतफहमी है कि वह यह मान बैठे है कि उनकी समीक्षा से ही तय होता है कि फिल्म चलेगी अथवा नहीं?
और अपने इस हुनर का जम कर वो फायदा उठाते है जिससे उनका नाम भी बढ़ता है,दाम भी मिलते है और फ़िल्मी पार्टियों के निमंत्रण।सर्वत्र मौज ही मौज?
इसी से पीत पत्रकारिता का जन्म होता है जिसमे सच्चाई कम और मिर्च मसाले दार समाचार होते है जिसे अल्प बुद्धि वाला पाठक सत्य मान बैठता है।
हिंदुस्तान के फ़िल्मी इतिहास में संगीत के मामले में सबसे अधिक पन्ने शंकर जयकिशन से भरे पड़े है।न जाने कितने संगीतकार आये गए पता ही नहीं किन्तु हमारे फ़िल्मी पंडितों ने अपनी समस्त ताकत इन दोनों संगीतकारो पर लगा दी।इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि इस जोड़ी ने एक नए संगीत की परम्परा डाली जो रातों रात पुरे मुल्क ही क्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गयी,तो उन्होंने इन्ही पर अपना निशाना साधा,प्रसिद्ध व्यक्ति के समर्थन अथवा खिलाफ होने पर ही आपकी कलम की प्रशंसा होती है?और इसी का परिणाम है कि जयकिशन जी के 1971 में हुए निधन और शंकर जी के 1987 में निधन होने के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा जा रहा।जयकिशन तो मात्र 42 वर्ष की आयु में ही इस संसार को छोड़ गए इसका नकारात्मक असर यह पड़ा की इनके संगीत की हर असफलता को शंकर जी से जोड़ दिया गया।
ऐसा लिखने लगे की मानों 1971 तक का संगीत मात्र जयकिशन ने दिया और 1971 के बाद का शंकर जी ने।1971 के बाद का संगीत निसंदेह शंकर जी ने दिया किन्तु उससे पहले क्या शंकर जी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते थे? 
शंकर जी की जगह कोई और होता तो शायद परास्त हो जाता,शंकर जी का अपना कोई रक्त संबंधी नहीं था,संगीत में ही वह अपना समस्त सुख खोजते थे,उसी में रमे रहते थे,अकूत सम्पदा के वो अकेले स्वामी थे,उन्हें न कोई रोग था न कोई आर्थिक संकट यही कारण था कि उन्होंने अपनी अंतिम फिल्म गौरी का संगीत मात्र एक रूपये में दिया,आपको विस्मय होगा गोरी फिल्म को बनाने वाला और कोई नहीं अपितु उनकी कार को साफ़ करने वाला कर्मचारी था नाम था सुधाकर शर्मा।
शंकर जी में दो गुण मुख्य थे स्वाभिमान से जीना और दूसरा संगीत!
उनके सभी मित्र हिंदी फिल्म उद्योग की नामचीन हस्तियां थी जो कभी इनके पास मंडराया करती थी किन्तु जब समय विपरीत हुआ तो सभी एक एक करके दूर होते चले गए।उन्हें कोई कष्ट नहीं था बस कष्ट था यही की जिन्हें वो मित्र समझते थे वो सभी बेवफा निकले जिसमे सबसे शीर्ष पर स्थान है राजकपूर का जिन्हें शंकर जी के बिना रोटी ही नाही भाती थी।
राजकपूर के अलावा लता मंगेशकर,मुकेश ने भी उन्हें बरबाद करने में कोई कौर कसर नहीं छोड़ी।
स्मरण रहे जयकिशन ,मुकेश,राजकपूर और लता की स्थापना का श्रेय शंकर जी को ही जाता है, किन्तु जयकिशन जी के निधन के बाद सभी किनारा कर गए..शंकरजी ने अपने रेडियो के एक कार्यक्रम में कहा था जो रिकार्ड में है..
रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारो की तरह
बैठे है उन्ही के कूँचे में हम आज गुनहगारों की तराह!!
यह भी कहा जाता है कि शारदा के कारण शंकर जी मूल धारा से दूर होते चले गए।क्या किसी नवीन गायिका को अवसर देना भूल है और यहाँ यह उल्लेख भी कर दूँ की राजकपूर ने शारदा को शंकर जयकिशन के पास कुछ सीखने को भेजा था!गर शंकर जी ने शारदा की प्रतिभा को निखारा तो इसमे क्या गलत है।और शारदा को उन्होंने प्रथम फिल्म सूरज में जब परवान चढ़ा दिया तो लोग घबरा गए और यही से शंकरजी के विरुद्ध एक मोर्चा खोल दिया गया,जिसकी कीमत उन्हें कदम कदम पर चुकानी पड़ी।विरोधियो को लगा की जो शारदा को रातों रात हिट कर सकता है उसके पास न जाने कितना सृजन होगा।
बस उनके संगीत की हत्या का सिलसिला यही से आरम्भ हुआ।हलाकि फिल्म अनाडी और चोरी चोरी के वक़्त ही उनके विरुद्ध संकेत मिलने लग गए थे पर उस वक़्त उनकी हिम्मत उनके विरुद्ध जाने की नहीं हुई ,फिर भी शंकर जी पर सोहन लाल कँवर,कनक मिश्रा, राजेंद्र भाटिया और पाँछि आदि उनके बुरे वक़्त में सबसे अच्छे मित्र साबित हुये।
शंकर जी ने अंतिम समय तक घुटने नहीं टेके।जिसने कठनाइयों के आगे घुटने टेक दिए,जिसने अपनी हार मान ली,वह आगे कैसे बढ़ सकता है?शंकर जी ने कभी भी हार नहीं मानी वो जानते थे आगे वही बढ़ सकता है जो कभी हार नहीं मानता,चाहे कैसे ही परिस्थति क्यू न हो वो अपनी दृष्टि लक्ष्य पर रखता है।
उनका सिर्फ एक ही लक्ष था अपने छोटे भाई जयकिशन जी का नाम उनके साथ मरते दम तक जुड़ा रहे।उनकी यह इच्छा उन्होंने पूर्ण की और अपने नाम के साथ 1987 तक जयकिशन जी के नाम को जोड़ा रखा।
हज़ारो कोशिशों के उपरांत भी आलोचक शंकरजी और जयकिशन जी को पृथक ही न कर सके,उन्हें एक नामचीन संगीतकार ने जयकिशन के निधन के बाद नयी जोड़ी बनाने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा यह विचार ही आपके दिमाग में कैसे आया की में जयकिशन के बिना जी सकता हूँ,वह आज भी मेरे आसपास है।हमें कोई भी शक्ति विभाजित नहीं कर सकती है।और उन्होंने यह साबित कर दिखाया।
Shyam Shanker Sharma
Jaipur, rajasthan.